Fri , Sep 29 2023
त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने मां शबरी से नवधा भक्ति के बारे में कहा था. ‘नवधा भक्ति’ का अर्थ ‘नौ प्रकार से भक्ति’ से होता है. रामायण के रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में नवधा भक्ति का वर्णन मिलता है|
जब मां शबरी श्रीराम से कहती हैं, मैं नीच, अधम, मंदबुद्धि हूं तो मैं किस प्रकार से आपकी स्तुति करूं. भगवान श्रीराम शबरी द्वारा श्रद्धापूर्वक भेंट किए हुए बेरों को बड़े ही प्रेम से खाते हैं और इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं. इसके बाद भगवान मां शबरी को नवधा भक्ति के बारे में कुछ तरह से बताते हैं, जिसे तुलसीदास जी ने अपनी चौपाई में लिखा है...
नवधा भगति कहउं तोहि पाहीं, सावधान सुनु धरु मन माहीं।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा, दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
अर्थ है: मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूं. तू इसे सावधान होकर सुनना और मन में धारण करना. पहली भक्ति है संतों का सत्संग और दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम.
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥
अर्थ है: तीसरी भक्ति है अभिमान से मुक्ति होकर गुरुजनों के चरण कमलों की सेवा करना और चौथी भक्ति है कपट को छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करना.
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा।
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा।।
अर्थ है: पांचवीं भक्ति वेदों में प्रसिद्धि है और छठी भक्ति में भगवान राम के शील की चर्चा की गई है कि इंद्रियों का निग्रह शील (अच्छा चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म में लगे रहना है.
सातवं सम मोहि मय जग देखा, मोतें संत अधिक करि लेखा।
आठवं जथालाभ संतोषा, सपनेहुं नहिं देखइ परदोषा॥
अर्थ हैं: सातवीं भक्ति संपूर्ण जगत को समभाव से मुझमें ओतप्रोत देखना और संतों को मुझसे भी श्रेष्ठ मानना है. आठवीं भक्ति है जो कुछ भी मिल जाए उसमें संतोष करना और सपने में भी पराए में कोई दोष न देखना
नवम सरल सब सन छलहीना, मम भरोस हियं हरष न दीना।
नव महुं एकउ जिन्ह कें होई, नारि पुरुष सचराचर कोई॥
अर्थ है: नौवीं भक्ति सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना है. हृदय में मेरा विश्वास रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य का न होना. इनमें से जिसके पास एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो.
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें, सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें।
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई. तो कहुं आजु सुलभ भइ सोई॥
अर्थ है: हे भामिनि! मुझे वही प्रिय है. फिर तुझमें तो यह सभी तरह की भक्ति निहित है. अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है|
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में बताया क्या है नवधा भक्ति, किस प्रकार की जाती है नौ प्रकार से ईश्वर की आराधना-
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।
(श्रीमद्भा० ७। ५। २३)
श्रीमद्भागवत महापुराण में श्रीकृष्ण ने नवधा भक्ति के बारे में बताया। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार नौ प्रकार से ईश्वर की आराधना कर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति इन नौ में से किसी भी एक प्रकार की भक्ति को अपने जीवन में हमेशा के लिए अपना लेता है तो मात्र इससे ही वो प्रभु के बैकुण्ठ धाम की प्राप्ति कर सकता है।
अर्थ है:
श्रवण
भगवान के चरित्र, लीला, महिमा, गुण, नाम तथा उनके प्रेम एवं प्रभावों की बातों का श्रद्धापूर्वक सदा सुनना और उसी के अनुसार आचरण करने की चेष्टा करना, श्रवण भक्ति है। श्रवण का अर्थ सुनना होता है इस प्रकार की भक्ति में भक्त सुनकर ईश्वर के प्रति अपने प्रेम को बढ़ाता है।
कीर्तन
भगवान की लीला, कीर्ति, शक्ति, महिमा, चरित्र, गुण, नाम आदि का प्रेमपूर्वक करना कीर्तन भक्ति है। श्रीनारद, व्यास, वालमीकि, शुकदेव, चैतन्य महाप्रभु आदि इसी श्रेणी के भक्त माने जाते है। ऐसी मान्यता है कि कीर्तन के समय भक्त प्रभु के सबसे निकट होता है। इस कीर्तन भक्ति में प्रभु के भजन को गाकर भक्त अपने भावों को दृढ़ करता है।
स्मरण
सदा अन्नय भाव से भगवान के गुण प्रभाव सहित उनके स्वरूप का चिन्तन करना और बारम्बार उनपर मुग्ध होना स्मरण भक्ति है। स्मरण का अर्थ याद करना है। थोड़े-थोड़े समय बाद प्रभु को याद करते रहना इस भक्ति में आता है। प्रहलाद, धुव्र, भरत, भीष्म, गोपियां आदि इसी श्रेणी के भक्त है।
चरणसेवन
भगवान के जिस रूप की उपासना करते हो, उसी का चरण सेवन करना या सब में ईश्वर को देखकर उन्हें प्रणाम करना। इस भक्ति में भगवान के चरणों की आराधना का महत्व है।
पूजन
अपनी रुचि के अनुसार भगवान की किसी मूर्ति या मानसिक स्वरूप का नित्य भक्तिपूर्वक पूजन करना। नित्य दीप प्रज्जवलित कर भगवान की आरती व पूजा करना इस भक्ति के अंतर्गत आता है। राजा पृथु, अम्बरीष आदि इसी श्रेणी के भक्त है।
वन्दन
ईश्वर या समस्त जग को ईश्वर का स्वरूप समझकर वन्दन करना वन्दन भक्ति है। जब भी ईश्वर के किसी भी स्वरूप के दर्शन हो तो वन्दन करने से इस प्रकार की भक्ति बढ़ती है। अक्रूर वन्दन भक्त है।
दास्य
ईश्वर को अपना मालिक मन से स्वीकार कर स्वयं को उनका दास मान लेना दास्य भक्ति है। ईश्वर की सेवा कर प्रसन्न होना। भगवान को अपना सर्वस्व मान लेना दास्य भक्ति कहलाता है। हनुमानजी और लक्ष्मण जी दास्य भाव के भक्त है।
सख्य
भगवान को अपना परम हितकारी मानकर उन्हें अपना दोस्त मान लेना सख्य भाव की भक्ति है। यह अत्यंत सरल भक्ति है। जिस प्रकार अपने दोस्त के साथ संबंध होते है ठीक उसी प्रकार ईश्वर को अपना मित्र मानना। अर्जुन, उद्धव, सुदामा इस श्रेणी के भक्त है।
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