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गीता-माता
गीता शास्त्रों का दोहन है। मैंने कहीं पढ़ा था कि सारे उप-निषदों का निचोड़ उसके ७०० श्लोकों में आ जाता है। इसलिए मैंने निश्चय किया कि कुछ न हो सके तो भी गीता का ज्ञान प्राप्त कर लं । आज गीता मेरे लिए केवल बाइविल नहीं है, केवल कुरान नहीं है, मेरे लिए वह माता हो गई है। पर संकट के समय गीता-माता के पास जाना मैं सीख गया हूं। मैंने देखा कि जो कोई इस माता की शरण जाता है, उसे ज्ञानामृत से वह तृप्त करती है । कुछ लोग कहते हैं कि गीता तो महा गूढ़ ग्रंथ है। स्व० लोकमान्य तिलक ने अनेक ग्रंथों का मनन करके पंडित की दृष्टि से उसका अभ्यास किया और उसके गढ़ अर्थों को वे प्रकाश में लाये । उसपर एक महाभाष्य की रचना भी की। तिलक महा-राज के लिए यह गूढ़ ग्रंथ था; पर हमारे जैसे साधारण मनुष्य के लिए वह गूढ़ नहीं है। सारी गोता का वाचन आपको कठिन मालूम हो तो आप पहले केवल तीन अध्याय पढ़ लें । गीता सब सार इन तीन अध्यायों में आ जाता है। बाकी के अध्याय में वही बात अधिक विस्तार से और अनेक दृष्टियों से सिद्ध की गई है। यह भी किसी को कठिन मालूम हो तो इन तीन अध्यायों में से कुछ ऐसे श्लोक छांटे जा सकते हैं, जिनमें गीता का निचोड़ आ जाता है। तीन जगहों पर तो गीता में यह भी आता है कि सब धर्मों को छोड़कर तू केवल मेरी ही शरण ले।
इससे अधिक सरल और सादा उपदेश क्या हो सकता है ? जो मनुष्य गीता में से अपने लिए आश्वासन प्राप्त करना चाहे तो उसे उसमें से वह पूरा-पूरा मिल जाता है। जो मनुष्य गीता का भक्त होता है, उसके लिए निराशा की कोई जगह नहीं है, वह हमेशा आनंद में रहता है। पर इसके लिए बुद्धिवाद नहीं, बल्कि अव्यभिचारिणी भक्ति चाहिए। अबतक मैंने एक भी ऐसे आदमी को नहीं जाना, जिसने गीता का अव्यभिचारिणी भक्ति से सेवन किया हो और जिसे गीता से आश्वासन न मिला हो। तुम विद्यार्थी लोग कहीं परीक्षा में फेल हो जाते हो तो निराशा के सागर में डूब जाते हो । गीता निराश होनेवालों को पुरुषार्थ सिखाती है, आलस्य और व्यभिचार का त्याग बताती है। एक वस्तु का ध्यान करना, दूसरी चीज बोलना और तीसरे को सुनना इसको व्यभिचार कहते हैं । गीता सिखाती है कि पास हो या फेल, दोनों चीजें समान हैं। मनुष्यों को केवल प्रयत्न करने का अधिकार है, फल पर कोई अधिकार नहीं। यह आश्वासन मुझे कोई नहीं दे सकता, वह तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होता है । सत्याग्रही की हैसियत से मैं कह सकता हूं कि इसमें से नित्य ही मुझे कुछ-न-कुछ नई वस्तु मिलती रहती है। कोई मुझे कहेगा कि यह तुम्हारी मूर्खता है तो मैं उसे कहूंगा कि मैं अपनी इस मूर्खता पर अटल रहूंगा । इसलिए सब विद्यार्थियों से मैं कहूंगा कि सवेरे उठकर तुम इसका अभ्यास करो।विद्यार्थी की हैसियत से तुम गीता का ही अभ्यास करो, पर द्वेष-भाव से नहीं, भक्ति-भाव से। तुम उसमें भक्तिपूर्वक प्रवे करोगे तो जो तुम्हें चाहिए वह उसमें से मिलेगा। अठारही अध्याय कंठ करना कोई खेल नहीं है, पर करने जैसी चीज तो है हो। तुम एक बार उसका आश्रय लोगे तो देखोगे कि दिनों-दिन उसमें तुम्हारा अनुराग बढ़ेगा। फिर तुम कारागृह में हो या जंगल में, आकाश में हो या अंधेरी कोठरी में, गीता का रटन तो निरंतर तुम्हारे हृदय में चलता ही रहेगा और उसमें से तुम्हें आश्वासन मिलेगा। तुमसे यह आधार तो कोई छीन ही नहीं सकता। इसके रटन में जिसका प्राण जायगा, उसके लिए तो वह सर्वस्व ही है; केवल निर्वाण नहीं, बल्कि ब्रह्म-निर्वाण है।
मेरे लिए तो गीता जीवित मां है, कामधेनु है। गीता का नित्य वाचन नीरस लगता है; क्योंकि उसका मनन नहीं होता।हमें रोज रास्ता दिखानेवाली माता है, ऐसा समझकर पढ़े तोनीरस नहीं लगेगी। हर रोज के पाठ के बाद एक मिनट के लिए उसपर विचार कर लें। रोज ही कुछ-न-कुछ, नया मिलेगा। हां, संपूर्ण मनुष्य को उसमें से कुछ नहीं मिलेगा। पर जिससे नित्य कोई दोष हो जाते हों, उसे उबारनेवाली यह गीतामाता है, यह समझकर नित्य-पाठ से थके नहीं। तुम्हें गीता के सतत अभ्यास से सब चिताओं से मुक्त रहना सीखना है। हम सबकी फिऋ रखनेवाला ईश्वर बैठा है। तब यह बोझा व्यर्थ ही हम क्यों ढोते फिरें ? हमें तो अपने "हिस्से आया हुआ काम करते रहना है।
ज्यों-ज्यों श्रद्धा बढ़ेगी त्यों-त्यों बुद्धि बढ़ेगी। गीता तो यह सिखाती मालूम देती है कि बुद्धियोग ईश्वर कराता है। श्रद्धा बढ़ाना हमारा कर्त्तव्य है। यहां श्रद्धा और बुद्धि का अर्थ समझना रहता है। यह समझ भी व्याख्या करने से नहीं आती,बल्कि सच्ची नम्रता का विकास करने से आती है । जो यह मानता है कि वह सबकुछ जानता है, वह कुछ नहीं जानता । जो मानता है कि वह कुछ नहीं जानता, उसे यथासमय ज्ञान प्राप्त हो जाता है। भरे हुए घड़े में गंगाजल ईश्वर भी नहीं भर सकता। इसलिए हमें तो ईश्वर के सामने रोज खाली हाथ ही खड़े होना है। हमारा अपरिग्रहव्रत भी यही बताता है । गीताजी जो धर्म सिखाती है, उसे समझो और उसके अनुसार अपना आचरण रखो।
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