Sun , Sep 03 2023
नई दिल्ली : केंद्र सरकार ने एक राष्ट्र, एक चुनाव को लेकर अहम कदम उठाया है। सरकार ने इस संबंध में एक समिति का गठन किया है। पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद को इस समिति का अध्यक्ष बनाया गया है। ऐसे में सवाल है कि आखिर यह एक देश, एक चुनाव (One Nation, One Election) क्या है? दरअसल, 'एक देश एक चुनाव' एक प्रस्ताव है जिसमें लोकसभा (भारतीय संसद के निचले सदन) और सभी राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराने का सुझाव दिया गया है। इसका मतलब है कि चुनाव पूरे देश में एक ही चरण में होंगे। मौजूदा समय में हर पांच साल बाद लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए हर 3 से 5 साल में चुनाव होते हैं।
एक राष्ट्र, एक चुनाव के समर्थन में तर्क दिया जाता है कि इससे चुनाव पर होने वाले खर्च में कमी आएगी। रिपोर्टों के अनुसार, 2019 के लोकसभा चुनावों में 60,000 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे। इस राशि में चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक दलों द्वारा खर्च की गई राशि और चुनाव आयोग ऑफ इंडिया (ECI) द्वारा चुनाव कराने में खर्च की गई राशि शामिल है। वहीं, 1951-1952 में हुए लोकसभा चुनाव में 11 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। इस संबंध में लॉ कमीशन का कहना था कि अगर 2019 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाते हैं तो 4,500 करोड़ का खर्चा बढ़ेगा। ये खर्चा ईवीएम की खरीद पर होगा लेकिन 2024 में साथ चुनाव कराने पर 1,751 करोड़ का खर्चा बढ़ेगा। इस तरह धीरे-धीरे ये अतिरिक्त खर्च भी कम होता जाएगा। इसके अलावा, एक साथ चुनाव कराने के समर्थकों का तर्क है कि इससे पूरे देश में प्रशासनिक व्यवस्था में दक्षता बढ़ेगी। इस संबंध में कहा जाता है कि अलग-अलग मतदान के दौरान प्रशासनिक व्यवस्था की गति काफी धीमी हो जाती है। सामान्य प्रशासनिक कर्तव्य चुनाव से प्रभावित होते हैं क्योंकि अधिकारी मतदान कर्तव्यों में संलग्न होते हैं। इसके समर्थन में यह भी कहा जाता है कि इससे केंद्र और राज्य सरकारों की नीतियों और कार्यक्रमों में निरंतरता सुनिश्चित करने में भी मदद मिलेगी। वर्तमान में, जब भी चुनाव होने वाले होते हैं तो आदर्श आचार संहिता लागू की जाती है। इससे उस अवधि के दौरान लोक कल्याण के लिए नई परियोजनाओं के शुरू पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। पीएम मोदी कह चुके हैं कि एक देश, एक चुनाव से देश के संसाधनों की बचत होगी। इसके साथ ही विकास की गति भी धीमी नहीं पड़ेगी।
लोकतंत्र के लिए वन नेशन, वन इलेक्शन में बहुत सराहनीय कदम है । पीएम मोदी ने कुछ साल पहले अपनी इच्छा जाहिर की थी कि ग्राम पंचायत से लेकर, विधानसभा और आम चुनाव एक साथ हों। 18 से 22 सितंबर के संसद के सेशन का मुद्दा वन नेशन, वन इलेक्शन रहेगा, ऐसा नहीं लगता है। अभी एक समिति गठन होनी है। चुनाव आयोग को प्रक्रिया में छह-आठ महीने से लेकर एक साल का वक्त लगेगा। कमिटी का कार्यकाल क्या होगा, उसको कब तक रिपोर्ट देनी है। बहुत सारी चीजें तय होनी है। चुनाव आयोग की भी इसमें बड़ी भूमिका रहेगी। ऐसे में अभी सबकुछ तुरंत नहीं होने जा रहा है।
एक साथ चुनाव कराने के कई चुनौतियां भी हैं। इसके लिए राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को लोकसभा के साथ जोड़ने के लिए संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता होगी। इसके अलावा, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के साथ-साथ अन्य संसदीय प्रक्रियाओं में भी संशोधन करने की आवश्यकता होगी। एक साथ चुनाव कराने को लेकर क्षेत्रीय दलों का प्रमुख डर यह है कि वे अपने स्थानीय मुद्दों को मजबूती से नहीं उठा पाएंगे क्योंकि राष्ट्रीय मुद्दे केंद्र में हैं। इसके साथ ही वे चुनाव खर्च और चुनाव रणनीति के मामले में राष्ट्रीय दलों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में भी असमर्थ होंगे। साल 2015 में आईडीएफसी संस्थान की तरफ से की गई स्टडी में पाया गया कि यदि लोकसभा और राज्यों के चुनाव एक साथ होते हैं तो 77 प्रतिशत संभावना है कि मतदाता एक ही राजनीतिक दल या गठबंधन को चुनेंगे। हालांकि, अगर चुनाव छह महीने के अंतराल पर होते हैं, तो केवल 61 प्रतिशत मतदाता एक ही पार्टी को चुनेंगे। देश के संघवाद के लिए एक साथ चुनावों से उत्पन्न चुनौतियों की भी आशंका है।
1999 में विधि आयोग ने भी अपनी एक रिपोर्ट में इसका समर्थन किया था। अगस्त 2018 में एक देश-एक चुनाव पर लॉ कमीशन की रिपोर्ट भी आई थी। लॉ कमिशन की रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि देश में दो फेज में चुनाव कराए जा सकते हैं। विधि आयोग ने कहा था कि एक साथ चुनाव कराने के लिए कम से कम पांच संवैधानिक सिफारिशों की आवश्यकता होगी। केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने संसद में बताया था कि देशभर में एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान में संशोधन करना होगा। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद- 83, 85, 172, 174 और 356 में संशोधन का जिक्र किया गया था।
1967 तक भारत में राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के लिए एक साथ चुनाव होना आम बात थी। आजादी के बाद वर्ष 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ हो चुके हैं। वर्ष 1967 के बाद कई बार लोकसभा और विधानसभाएं अलग-अलग समय पर भंग होती रहीं, जिस कारण यह क्रम टूट गया। कुछ विधानसभाओं को 1968 और 1969 में और 1970 में लोकसभा को समय से पहले भंग कर दिया गया। एक दशक बाद, 1983 में चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव रखा। हालांकि, आयोग ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहा कि तत्कालीन सरकार ने इसके खिलाफ फैसला किया था। 1999 के विधि आयोग की रिपोर्ट में भी एक साथ चुनाव कराने पर जोर दिया गया था। हाल ही में भारतीय जनता पार्टी ने जोर दिया। बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए अपने चुनावी घोषणापत्र में कहा था कि वह राज्य सरकारों के लिए स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए एक साथ चुनाव कराने का एक तरीका विकसित करने का प्रयास करेगी।
2022 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्र ने कहा था कि चुनाव आयोग पूरी तरह से तैयार है। उन्होंने कहा था कि चुनाव आयोग एक साथ चुनाव कराने में सक्षम है। हालांकि, उन्होंने कहा कि इस विचार को लागू करने के लिए संविधान में बदलाव की जरूरत है और यह संसद में तय किया जाना चाहिए। दिसंबर 2022 में, विधि आयोग ने देश में एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव पर राष्ट्रीय राजनीतिक दलों, भारत के चुनाव आयोग, नौकरशाहों, शिक्षाविदों और एक्सपर्ट्स सहित हितधारकों की राय मांगी थी।
वन नेशन, वन इलेक्शन कमिटी का क्या मतलब है?
कमिटी का मकसद यह है कि वह दलों, नेताओं के साथ आम लोगों से सलाह मशविरा करेगी। उनकी राय लेगी। इसके बाद एक ड्राफ्ट तैयार किया जाएगा। इसके बाद सरकार कानून बनाने के लिए आगे बढ़ेगी और संसद में बिल लेकर आएगी।
'वन नेशन, वन इलेक्शन' पर कमिटी के गठन के बाद इस पर नोटिफिकेशन जारी किया जाएगा। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्ष में गठित कमिटी के इस नोटिफिकेशन में वन नेशन, वन इलेक्शन की शर्तें और मियाद का जिक्र होगा।
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